मेरा पहला एहसास केले के साथ

दोस्तों मै हु लीलाधर वैसे तो मै पहले से कहानियां लिखता आ रहा हूँ अभी जब मैंने मस्ताराम.नेट के बारे में सुना मेरे सभी दोस्त बोलने लगे यार सबसे मस्त वेबसाइट मस्ताराम.नेट यहाँ डेली अपडेटेड कहानियां मिलती है मै भी उनकी बाते सुन रहा था पर ए बात मेरे दोस्तों को नही पता की मै भी सेक्सी कहानियां लिखता हूँ सो मैंने रूम आ कर मस्ताराम.नेट ओपन किया तो मुझे यहाँ की सारी कहानियां पसंद आई सो आज से मैंने भी अपनी कहानी लिख कर भेज रहा हूँ आशा करता हु आप लोग खूब एन्जॉय करेगे |  यह एक ऐसी घटना है जिसकी याद दस साल बाद भी मुझे शर्म से पानी पानी कर देती है। लगता है धरती फट जाए और उसमें समा जाऊँ। अकेले में भी आइना देखने की हिम्मत नहीं होती। कोई सोच भी नहीं सकता किसी के साथ ऐसा भी घट सकता है | ये एक केले का किस्सा है | उस घटना के बाद मैंने पापा से जिद करके जेएनयू ही छोड़ दिया। पता नहीं मेरी कितनी बदनामी हुई होगी। दस साल बाद आज भी किसी जेएनयू के विद्यार्थी के बारे में बात करते डर लगता है। कहीं वह सन २००२ के बैच का न निकले और सोशियोलॉजी विषय का न रहा हो। तब तो उसे जरूर मालूम होगा। खासकर हॉस्टल का रहनेवाला हो तब तो जरूर पहचान जाएगा। गनीमत थी कि पापा को पता नहीं चला। उन्हें आश्चर्य ही होता रहा कि मैंने इतनी मेहनत से जेएनयू की प्रवेश परीक्षा पासकर उसमें छह महीने पढ़ लेने के बाद उसे छोड़ने का फैसला क्यों कर लिया। मुझे कुछ सूझा नहीं था, मैंने पिताजी से बहाना बना दिया कि मेरा मन सोशियोलॉजी पढ़ने का नहीं कर रहा और मैं मास कम्यूनिकेशन पढ़ना चाहती हूँ। छह महीने गुजर जाने के बाद अब नया एडमिशन तो अगले साल ही सम्भव था। चाहती थी अब वहाँ जाना ही न पड़े। संयोग से मेरी किस्मत ने साथ दिया और अगले साल मुझे बर्कले यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता में छात्रवृत्ति मिल गई और मैं अमेरिका चली गई। दोस्तों आप यह कहानी मस्ताराम.नेट पर पढ़ रहे है | लेकिन विडम्बना ने मेरा पीछा वहाँ भी नहीं छोड़ा। यह छात्रवृत्ति नीमा को भी मिली थी और वह अमरीका मेरे साथ गई। वही इस कारनामे की जड़ थी। उसी ने जेएनयू में मेरी यह दुर्गति कराई थी। उसने अपने साथ मुझसे भी छात्रवृत्ति के लिए प्रार्थनापत्र भिजवाया था और पापा ने भी उसका साथ होने के कारण मुझे अकेले अमेरिका जाने की इजाजत दी थी। लेकिन नीमा की संगत ने मुझे अमेरिका में भी बेहद शर्मनाक वाकये में फँसाया, हालाँकि बाद में उसका मुझे फायदा मिला था। पर वह एक दूसरी कहानी है। नीमा एक साथ मेरी जिन्दगी में बहुत बड़ा दुर्भाग्य और बहुत बड़ा सौभाग्य दोनों थी। वो नीमा | जेएनयू के साबरमती हॉस्टल की लड़कियाँ की सरताज। जितनी सुंदर उससे बढ़कर तेजस्वी, बिल्लौरी आँखों में काजल की धार और बातों में प्रबुद्ध तर्क की धार, गोरापन लिये हुए छरहरा शरीर, किंचित ऊँची नासिका में चमकती हीरे की लौंग, चेहरे पर आत्मविश्वारस की चमक, बुध्दिमान और बेशर्म, न चेहरे, न चाल में संकोच या लाज की छाया, छातियाँ जैसे मांसलता की अपेक्षा गर्व से ही उठी रहतीं, उच्चवर्गीय खुले माहौल से आई तितली। अन्य हॉस्टलों में भी उसके जैसी विलक्षण शायद ही कोई दिखी। मेरी रूममेट बनकर उसे जैसे एक टास्क मिल गया था कि किस तरह मेरी संकोची, शर्मीले स्वभाव को बदल डाले। मेरे पीछे पड़ी रहती। मुझे दकियानूसी बताकर मेरा मजाक उड़ाती रहती। उसकी तुर्शी-तेजी और पढ़ाई में असाधारण होने के कारण मेरे मन पर उसका हल्का आतंक भी रहता, हालाँकि मैं उससे अधिक सुंदर थी, उससे अधिक गोरी और मांसल लेकिन फालतू चर्बी से दूर, फिगर को लेकर मैं भी बड़ी सचेत थी, उसके साथ चलती तो लड़कों की नजर उससे ज्यादा मुझ पर गिरती, लेकिन उसका खुलापन बाजी मार ले जाता। मैं उसकी बातों का विरोध करती और एक शालीनता और सौम्यता के पर्दे के पीछे छिपकर अपना बचाव भी करती। जेएनयू का खुला माहौल भी उसकी बातों को बल प्रदान करता था। यहाँ लड़के लड़कियों के बीच भेदभाव नहीं था, दोनों बेहिचक मिलते थे। जो लड़कियाँ आरंभ में संकोची रही हों वे भी जल्दी जल्दी नए माहौल में ढल रही थीं। ऐसा नहीं कि मैं किसी पिछड़े माहौल से आई थी। मेरे पिता भी अफसर थे, तरक्कीपसंद नजरिये के थे और मैं खुद भी लड़के लड़कियों की दोस्ती के विरोध में नहीं थी। मगर मैं दोस्ती से सेक्स को दूर ही रखने की हिमायती थी | जबकि नीमा ऐसी किसी बंदिश का विरोध करती थी। वह कहती शादी एक कमिटमेंट जरूर है मगर शादी के बाद ही, पहले नहीं। हम कुँआरी हैं, लड़कों के साथ दोस्ती को बढ़ते हुए अंतरंग होने की इच्छा स्वाभाविक है और अंतरंगता की चरम अभिव्यक्ति तो सेक्स में ही होती है। वह शरीर के सुख को काफी महत्व देती और उस पर खुलकर बात भी करती। मैं भारतीय संस्कृति की आड़ लेकर उसकी इन बातों का विरोध करती तो वह मदनोत्सव, कौमुदी महोत्सव और जाने कहाँ कहाँ से इतिहास से तर्क लाकर साबित कर देती कि सेक्स को लेकर प्रतिबन्ध हमारे प्राचीन समाज में था ही नहीं। मुझे चुप रहना पड़ता। पर बातें चाहे जितनी कर खारिज दो मन में उत्सुकता तो जगाती ही हैं। वह औरतों के हस्तमैथुन, समलैंगिक संबंध के बारे में बात करती। शायद मुझसे ऐसा संबंध चाहती भी थी। मैं समझ रही थी, मगर ऊपर से बेरुखी दिखाती। मुझसे पूछती कभी तुमने खुद से किया है, तुम्हारी कभी इच्छा नहीं होती| भगवान ने जो खूबियाँ दी हैं उनको नकारते रहना क्या इसका सही मान है? जैसे पढ़ाई में अच्छा होना तुम्हारा गुण है, वैसे ही तुम्हारे शरीर का भी अच्छा होना क्या तुम्हारा गुण नहीं है? अगर उसकी इज्जत करना तुम्हें पसंद है तो तुम्हारे शरीर ……
ओफ… भगवान के लिए चुप रहो। तुम कुछ और नहीं सोच सकती? मैं उसे चुप कराने की कोशिश करती।
सोचती हूँ, इसीलिये तो कहती हूँ।
सेक्स या शारीरिक सौंदर्य मेरा निजी मामला है।
तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारा नॉलेज भी तो तुम्हारी निजी चीज है? उस दिन कुछ वह ज्यादा ही तीव्रता में थी।
केला अन्दर तक चला गया था.. दोस्तों आप यह कहानी मस्ताराम.नेट पर पढ़ रहे है |
है, लेकिन यह मेरी अपनी योग्यता है, इसे मैंने अपनी मेहनत से, अपनी बुद्धि से अर्जित किया है।
और शरीर कुदरत ने तुम्हें दिया है इसलिए वह गलत है?
बिल्कुल नहीं, मैं मेकअप करती हूँ, इसे सजा-धजाकर अच्छे से संवार कर रखती हूँ।
लेकिन इससे मज़ा करना गलत समझती हो? या फिर खुद करो तो ठीक, दूसरा करे तो गलत, है ना?
अब तुम्हें कैसे समझाऊँ।
वह आकर मेरे सामने बैठ गई, माई डियर, मुझे मत समझाओ, खुद समझने की कोशिश करो।
मैंने साँस छोड़ी, तुम चाहती क्या हो? सबको अपना शरीर दिखाती फिरूँ?
बिल्कुल नहीं, लेकिन इसको दीवार नहीं बनाओ, सहज रूप से आने दो। वह मेरी आँखों में आँखें डाले मुझे देख रही थी। वही बाँध देनेवाली नजर, जिससे बचकर दूसरी तरफ देखना मुश्किल होता। मेरे पास अभी उसके कुतर्कों के जवाब होते, मगर बोलने की इच्छा कमजोर पड़ जाती।
फिर भी मैंने कोशिश की, मैं यहाँ पढ़ने आई हूँ, प्रेम-व्रेम के चक्कर में फँसने नहीं।
प्रेम में न पड़ो, दोस्ती से तो इनकार नहीं? वही करो, शरीर को साथ लेकर।
मैं उसे देखती रह जाती। क्या चीज है यह लड़की | कोई शील संकोच नहीं? यहाँ से पहले माँ-बाप के पास भी क्या ऐसे ही रहती थी | उसने छह महीने में ही कई ब्वायफ्रेंड बना लिये थे, उनके बीच तितली-सी फुदकती रहती। हॉस्टल के कमरे में कम ही रहती। जब देखो तो लाइब्रेरी में, या दोस्तों के साथ, या फिर हॉस्टल के कार्यक्रमों में। मुझे उत्सुकता होती वह लड़कों के साथ भी पढ़ाई की बातें करती है या इश्क और सेक्स की बातें?
मुझे उसके दोस्तों को देखकर उत्सुकता तो होती पर मैं उनसे दूर ही रहती। शायद नीमा की बातों और व्यवहार की प्रतिक्रिया में मेरा लड़कों से दूरी बरतना कुछ ज्यादा था। वह नहीं होती तो शायद मैं उनसे अधिक मिलती-जुलती। उसके जो दोस्त आते वे उससे ज्यादा मुझे ही बहाने से देखने की कोशिश में रहते। मुझे अच्छा लगता- कहीं पर तो उससे बीस हूँ। नीमा उनके साथ बातचीत में मुझे भी शामिल करने की कोशिश करती। मैं औपचारिकतावश थोड़ी बात कर लेती लेकिन नीमा को सख्ती से हिदायत दे रखी थी कि अपने दोस्तों के साथ मेरे बारे में कोई गंदी बात ना करे। अगर करेगी तो मैं कमरा बदलने के किए प्रार्थनापत्र दे दूंगी।
वह डर-सी गई लेकिन उसने मुझे चुनौती भी देते हुए कहा था, मैं तो कुछ नहीं करूँगी, लेकिन देखूँगी तुम कब तक लक्ष्मण रेखा के भीतर रहती हो? अगर कभी मेरे हाथ आई तो, जानेमन, देख लेना, निराश नहीं करूंगी, वो मजा दूंगी कि जिन्दगीभर याद रखोगी। दोस्तों आप यह कहानी मस्ताराम.नेट पर पढ़ रहे है | उस दिन मैं अनुमान भी नहीं लगा पाई थी उसकी बातों में कैसी रोंगटे खड़े कर देनेवाली मंशा छिपी थी। लेकिन अकेले में मेरे साथ उसके रवैये में कोई फर्क नहीं था। दोस्ती की मदद के साथ साथ एक अंतनिर्हित रस्साकशी भी। नोट्स का आदान-प्रदान, किताबों, विषयों पर साधिकार बहस और साथ में उतने ही अधिकार से सेक्स संबंधी चर्चा। अपने सेक्स के, हस्तमैथुन के भी प्रसंगों का वर्णन करती, समलैंगिक अनुभव के लिए उत्सुकता जाहिर करती जिसमें अप्रत्यक्ष रूप से मेरी तरफ इशारा होता। कोई सुंदर गोरी लड़की मिले तो… तुम्हारी जैसी… शायद मेरे प्रति मन में कमजोरी उसे मुझे खुलकर बोलने से रोकती। वह अशालीन भी नहीं थी। उसकी तमाम बातों में चालूपन से ऊपर एक परिष्कार का स्तर बना रहता। वह विरोध के लायक थी पर फटकार के लायक नहीं। वह मुझे हस्तमैथुन के लिए ज्यादा प्रेरित करती। कहती इसमें तो कोई आपत्ति नहीं है न। इसमें तो कोई दूसरा तुम्हें देखेगा, छुएगा नहीं?
वह रात देर तक पढ़ाई करती, सुबह देर से उठती। उसका नाश्ता अक्सर मुझे कमरे में लाकर रखना पड़ता। कभी कभी मैं भी अपना नाश्ता साथ ले आती। उस दिन जरूर संभावना रहती कि वह नाश्ते के फलों को दिखाकर कुछ बोलेगी। जैसे, ‘असली’ केला खाकर देखो, बड़ा मजा आएगा।’ वैसे तो खीरे, ककड़ियों के टुकड़ों पर भी चुटकी लेती, ‘खीरा भी बुरा नहीं है, मगर वह शुरू करने के लिए थोड़ा सख्त है।’ केले को दिखाकर कहती, इससे शुरूआत करो, इसकी साइज, लम्बाई मोटाई चिकनाई सब ‘उससे’ मिलते है, यह ‘इसके’ (उंगली से योनिस्थल की ओर इशारा) के सबसे ज्यादा अनुकूल है। एक बार उसने कहा, छिलके को पहले मत उतारो, इन्फेक्शन का डर रहेगा। बस एक तरफ से थोड़ा-सा छिलका हटाओ और गूदे को उसके मुँह पर लगाओ, फिर धीरे धीरे ठेलो। छिलका उतरता जाएगा और एकदम फ्रेश चीज अंदर जाती जाएगी। नो इन्फेक्शकन।

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